बेटों वाली विधवा मुंशी प्रेम चंद
कामतानाथ ने पलंग पर लेटे-लेटे कहा- 'रहने दो अम्माँ, मैं पानी भर लाऊँगा, आज महरी खूब बैठ रही।'
फूलमती ने मटियाले आकाश की ओर देखकर कहा- 'तुम भीग जाओगे बेटा, सर्दी हो जायगी।'
कामतानाथ बोले- 'तुम भी तो भीग रही हो। कहीं बीमार न पड़ जाओ।'
फूलमती निर्मम भाव से बोली- 'मैं बीमार न पडूँगी। मुझे भगवान ने अमर कर दिया है।'
उमानाथ भी वहीं बैठा हुआ था। उसके औषधालय में कुछ आमदनी न होती थी, इसलिए बहुत चिन्तित था। भाई-भावज की मुँहदेखी करता रहता था। बोला- 'जाने भी दो भैया! बहुत दिनों बहुओं पर राज कर चुकी हैं, उसका प्रायश्चित तो करने दो।'
गंगा बढ़ी हुई थी, जैसे समुद्र हो। क्षितिज के सामने के कूल से मिला हुआ था। किनारों के वृक्षों की केवल फुनगियाँ पानी के ऊपर रह गयी थीं। घाट ऊपर तक पानी में डूब गये थे। फूलमती कलसा लिये नीचे उतरी, पानी भरा और ऊपर जा रही थी कि पाँव फिसला। सँभल न सकी। पानी में गिर पड़ी। पल-भर हाथ-पाँव चलाये, फिर लहरें उसे नीचे खींच ले गयीं। किनारे पर दो-चार पंडे चिल्लाए- ‘अरे दौड़ो, बुढ़िया डूबी जाती है।’ दो-चार आदमी दौड़े भी लेकिन फूलमती लहरों में समा गयी थी, उन बल खाती हुई लहरों में, जिन्हें देखकर ही हृदय काँप उठता था।
एक ने पूछा- 'यह कौन बुढ़िया थी?'
‘अरे, वही पंडित अयोध्यानाथ की विधवा है।‘
‘अयोध्यानाथ तो बड़े आदमी थे?’
‘हाँ थे तो, पर इसके भाग्य में ठोकर खाना लिखा था।‘
‘उनके तो कई लड़के बड़े-बड़े हैं और सब कमाते हैं?’
‘हाँ, सब हैं भाई; मगर भाग्य भी तो कोई वस्तु है!'